दुखों का समय धीरे से गुजरता है इतने दुखों की तेज हवा में, दिल का दीप जला रक्खा हूँ दिल में ओर तो क्या रक्खा है वर्तमान का दर्द छुपा रक्खा हूँ इधर उधर सब जगह पुकारा है बिगड़ी बात मन में याद रक्खा हूँ धूप से चेहरों ने दुनिया में क्या अंधेरा मचा रक्खा है...? इस नगरी के कुछ लोगों ने दुख को नाम दवा दे रक्खा है पुराने समय की बात क्यूँ न छेड़ू ये धोका भी हमने खा रक्खा है इतने दुखों की तेज हवा में दिल का दीप जला रक्खा हूँ भूल भी जाओ बीती सब बातें इन झूठी बातों में क्या रक्खा है ऐसा लोग बार-बार मुझे कहते है मै पूर्वजों की बातें याद दिलाता हूँ चुप क्यूँ रहूं,कहू नहीं सब बातें ये क्या बंधन मुझे लगा रक्खा है यह पारब्ध का शेष फल मेरा है दुखी जीवन में क्या रक्खा है...? इतने दुखो की तेज हवाओं में मैंने दिल का दीप जला रक्खा है जय श्री विश्वकर्मा जी की दलीचंद जांगिड सातारा महा.